चाचा का रिश्ता ऐसा होता है जिसमें ढेर सारे रिश्तों की खूबियाँ एक साथ होती हैं.....पिता का कड़ा अनुशासन और मार्गनिर्देशन, माँ सा प्यार-दुलार, बड़े भाई का सुरक्षात्मक साथ, बहन सी ध्यान रखने की आदत, दोस्त की तरह राजदां...... चंदोला चचा और मेरा रिश्ता भी इन्ही खूबियों से लबरेज था. 1992 में जब मैं वाराणसी में रिपोर्टर थी तब रोज तमाम मुश्किलें मेरे सामने खड़ी होती. लोगों के कमेन्ट से मैं परेशान हो जाती. चचा से मिलती तो पहले चाय पिलाते फिर प्यार से समझाते. किसी वरिष्ठ पत्रकार के परेशान करने की बात करती तो पहले तो उसे गालियों से नवाजते फिर मुझे झाँसी की रानी बनने की प्रेरणा देते. कहते इतना अच्छा लिखो कि सालों के मुंह पर जूता पड़े . अच्छी रिपोर्ट लिखने पर कॉफी पिलाते. उनकी जिन्दादिली हमें ऊर्जा से भर देती. जब से बनारस छूटा चचा से मिलना कम हो गया लेकिन मेरे अन्दर चचा की जिन्दादिली और ऊर्जा आज भी उमंग भरती हैं। अभी दो दिन पहले बनारस गयी थी एक मित्र से चचा के बारे में पूछा तो पता चला की दिल्ली गये हैं. मैंने मित्र से कहा चलो जून में आऊँगी तो चचा से मिलने जाऊँगी पर क्या पता था चचा अब नहीं लौटेंगे, अब कौन कहेगा-चल सब छोड़....हो जाये एक कुल्हड़ चाय.
उनकी स्मृतियाँ हमेशा मुझे हँसते-खिलखिलाते जीने की राह दिखायेंगी. बनारस में चचा का सानिध्य पाने वालों से एक गुजारिश है कि उनसे जुड़े संस्मरण लिखें ताकि नयी पीढ़ी के पत्रकार भी उस सुनहरे समय को महसूस कर सके जब पत्रकार बिरादरी खांचों में नहीं बटी थी और सभी अखबारों के लोग मिलजुल कर रहते थे. खेल प्रतियोगिता और बाटी-चोखा के आयोजन हमारी एकता और प्रेम को और बढ़ा देते थे.