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Tuesday, May 22, 2012

जाना एक जिन्दादिल का

चाचा का रिश्ता ऐसा होता है जिसमें ढेर सारे रिश्तों की खूबियाँ एक साथ होती हैं.....पिता का कड़ा अनुशासन और मार्गनिर्देशन, माँ सा प्यार-दुलार, बड़े भाई का सुरक्षात्मक साथ, बहन सी ध्यान रखने की आदत, दोस्त की  तरह राजदां...... चंदोला चचा और मेरा रिश्ता भी इन्ही खूबियों से लबरेज था. 1992 में जब मैं वाराणसी में रिपोर्टर थी तब रोज तमाम मुश्किलें मेरे सामने खड़ी होती. लोगों के कमेन्ट से मैं परेशान  हो जाती. चचा से मिलती तो पहले चाय पिलाते फिर प्यार से समझाते. किसी वरिष्ठ पत्रकार के परेशान करने की बात करती तो पहले तो उसे गालियों से नवाजते फिर मुझे झाँसी की रानी बनने की प्रेरणा देते. कहते इतना अच्छा लिखो कि सालों के मुंह पर जूता पड़े . अच्छी रिपोर्ट लिखने पर कॉफी पिलाते. उनकी जिन्दादिली हमें ऊर्जा से भर देती. जब से बनारस छूटा चचा से मिलना कम हो गया लेकिन मेरे अन्दर चचा की जिन्दादिली और ऊर्जा आज भी उमंग भरती हैं।  अभी दो दिन पहले बनारस गयी थी एक मित्र से चचा के बारे में पूछा तो पता चला की दिल्ली गये हैं. मैंने मित्र से कहा चलो जून में आऊँगी तो चचा से मिलने जाऊँगी पर क्या पता था चचा अब नहीं लौटेंगे, अब कौन कहेगा-चल सब छोड़....हो जाये एक कुल्हड़ चाय. 
 उनकी स्मृतियाँ हमेशा मुझे हँसते-खिलखिलाते जीने की राह दिखायेंगी. बनारस में चचा का सानिध्य पाने वालों से एक गुजारिश है कि उनसे जुड़े संस्मरण लिखें ताकि नयी पीढ़ी के पत्रकार भी उस सुनहरे समय को महसूस कर सके जब पत्रकार बिरादरी खांचों में नहीं बटी थी और सभी अखबारों के लोग मिलजुल कर रहते थे.  खेल प्रतियोगिता और बाटी-चोखा के आयोजन हमारी एकता और प्रेम को और बढ़ा देते थे. 


Monday, November 28, 2011

जीवन की नयी राह

सुबह से शाम तक डिब्बों में बंद जिंदगी जी रहे हैं हम... घर की जिंदगी....ऑफिस की जिंदगी...बाज़ार की जिंदगी... बच्चों की जिंदगी...हर डिब्बे का आकार अलग-अलग है, महक अलग-अलग है इस्तेमाल अलग-अलग है...लेकिन इन डिब्बों मैं कैद है हमारी खूबसूरत जिंदगी जो कुदरत ने हमें बक्शी है. यही कोई ३० दिन पहले तक मैं भी ऐसे ही डिब्बों में बंद जिन्दगी गुजार रही थी लेकिन कुदरत ने मुझे खुद इन डिब्बों से बाहर खींच निकाला. मैं हतप्रभ थी.. समझ नहीं पा रही ये क्या हो रहा है. तेज बुखार में मेरा माथा तप रहा था, कब मैं बेहोश हो गयी पता ही नहीं चला. लेकिन पल भर बाद मैं नयी दुनिया में थी. खुद को देख नहीं पा रही थी. मुझे दिल बैठता हुआ महसूस हुआ. लगा सामने से तेज रोशनी आ रही है. हजारों का जनसैलाब भी आगे बढ़ता आ रहा है....संवेदना से मुक्त चेहरे...सब अंजान... सब मेरी ओर बढते चले आ रहे है...तभी कुछ पहचाने चेहरे दिखे... अरे! ये तो अपने जानने वाले हैं...ये नवजात तो मेरा सृजन था...लेकिन ये तो मेरा साथ कोई १० साल पहले छोड़ गया था ...ये कहाँ से आ गया....मैं हाथ बढ़ा कर छू लेना चाहती थी...लेकिन ये क्या मेरे हाथ तो हिल-डुल भी नहीं पा रहे थे.......फिर हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा दिखने लगा. आंखे खुली तो साँस नहीं ले पा रही थी. थोड़ी देर में ही सांसों की डोर की अहमियत समझ में आ गयी...नाख़ून अपना गुलाबी रंग बदल रहे थे...इनमें नीलिमा दिखने लगी थी और लगने लगा था कि जीवन बालू क़ी तरह हाथ से फिसलता जा रहा है. खटाखट एक के बाद एक फ्रेम बदलने लगे...जीवन में क्या किया...बस इतना ही... अरे अभी तो केवल ऑफिस के काम करने में व्यस्त थी बाकी दुनियादारी तो बहुत पीछे छूट गयी. अभी तो जीवन का आनंद उठाया ही नहीं...दुनिया ठीक से देखी ही कहाँ...सोचा था ये करुँगी...वो करुँगी लेकिन अब तो जीवन की डोर टूटती दिख रही है...मेरी नाउमीदी बढती ही जा रही थी...फिर न जाने क्या हुआ...रेत के फिसलने की गति कम हो गयी....सांसें सामान्य होने लगीं...लगा जीवन किसी ने सुनहरे गिफ्ट पेपर में लपेट कर मुझे दिया...जीवन पाकर फिर से तमन्नाए जवान होने लगी.. और अब जीवन को देखने का नजरिया बदल गया है. बीमारी ने यथार्थ के धरातल पर ला पटका मुझे और अहसास कराया कि जिंदगी में क्या मिस कर रही थी. काफी पहले पढ़ा था अमेरिका के एक कबीले के लोग जब निराश हो जाते हैं तो खुद अपनी कब्र खोदते हैं और उसमें रात भर रहते हैं सुबह सूरज की पहली किरण के साथ बाहर निकलते है....वे यह मानते हैं कि इसके बाद जीवन की नयी राह मिल जाती हैं. शुक्र है खुदा का कि मुझे अपनी कब्र खोदने की जरुरत नहीं पड़ी और जीवन की नयी राह नज़र आने लगी.